Lekhika Ranchi

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रविंद्रनाथ टैगोर की रचनाएंःअवगंठुन 1


अवगुंठन रबीन्द्रनाथ टैगोर

1
महामाया और राजीव लोचन दोनों सरिता के तट पर एक प्राचीन शिवालय के खंडहरों में मिले। महामाया ने मुख से कुछ न कहकर अपनी स्वाभाविक गम्भीर दृष्टि से तनिक कुछ तिरस्कृत अवस्था में राजीव की ओर देखा, जिसका अर्थ था कि जिस बिरते पर तुम आज बेसमय मुझे यहां बुला ले आये हो? मैं अब तक तुम्हारी सभी बातों का समर्थन करती आई हूं, इसी से तुम्हारा इतना साहस बढ़ गया।
राजीव लोचन तो वैसे महामाया से सदैव त्रस्त रहता है, उस पर यह चितवन! बेचारा कांप उठा। साहस बटोरकर कुछ कहना चाहता था; किन्तु उसकी आशाओं पर उसी क्षण पानी फिर गया और अब इस भेंट की शीघ्रता से कोई-न-कोई कारण बिना बताये भी उसका छुटकारा नहीं हो सकता। अत: वह शीघ्रता से कह बैठा-मैं चाहता हूं कि यहां से कहीं भाग चलें और वहां जाकर दोनों विवाह कर लें। राजीव जिन विचारों को प्रकट करना चाहता था, विचार तो उसने ठीक वही प्रगट किए; किन्तु जो भूमिका वह बनाकर लाया था, वह न जाने कहां गुम हो गई? उसके विचार बिल्कुल रसहीन और निरर्थक सिध्द हुए सो तो ठीक है ही; लेकिन सुनने में भी भद्दे और अजीब-से लगे। वह स्वयं ही सुनकर भौंचक्का-सा रह गया। और भी दो-चार बात जोड़कर उसे तनिक नरम बना देने की शक्ति उसमें न रही। शिवालय के खंडहरों में सरिता के तट पर इस जलती हुई दुपहरिया में महामाया को बुलाकर उस मूर्ख ने केवल इतना ही कहा- चलो, हम कहीं चलकर विवाह कर लें।
महामाया कुलीनों के घर की अविवाहित कन्या है। अवस्था है चालीस वर्ष की। जैसी बड़ी अवस्था है, वैसा ही सौन्दर्य। शरद की धूप के समान पक्के सोने के रंग की प्रतिमा-सी लगती है, उस धूप जैसी ही दीप्त और नीरव उसकी दृष्टि है दिव्यलोक जैसी उन्मुक्त और निर्भीक। उसके पिता नहीं है, केवल बड़ा भाई है। उसका नाम है भवानीचरण। भाई-बहन का स्वभाव एक-सा ही है। मुख से कहता नहीं, पर तेज ऐसा है कि दोपहर के सूर्य की तरह चुपके से जला सब कुछ देते हैं। खासकर भवानीचरण से लोग अकारण ही भय खाया करते हैं।
राजीव लोचन परदेशी है। यहां की रेशम की कोठी का बड़ा साहब उसे अपने साथ ले आया था। राजीव के पिता इस साहब की कोठी में काम करते थे। उसके स्वर्गवासी हो जाने पर साहब ने उसके नाबालिग लड़के के लालन-पालन का सारा भार अपने ऊपर ले लिया और बाल्यकाल से ही उसे वह अपनी इस वामनहारी की कोठी में ले आया। लड़के के साथ केवल उसकी स्नेह करने वाली बुआ थी। राजीव अपनी बुआ के साथ भवानीचरण के पड़ोस में रहा करता था। महामाया उसकी बाल-सहचरी थी और राजीव की बुआ के साथ उसका सुढृढ़ स्नेह बंधन था।
राजीव की अवस्था क्रमश: सोलह, सत्रह, अठारह, यहां तक कि उन्नीस वर्ष की हो गई; फिर भी बुआ के अनुरोध करने पर भी वह विवाह नहीं करना चाहता था। साहब उसकी इस सुबुध्दि का परिचय पाकर बहुत ही प्रसन्न हुआ। उसने सोचा कि लड़के ने उन्हीं को अपना आदर्श बना लिया है। साहब भी अविवाहित थे।
इस बीच में बुआ भी स्वर्गवासिनी बनी।
इधर ताकत से अधिक व्यय किए बिना महामाया के लिए अनुरूप और योग्य पात्र मिलना कठिन हो रहा था और उसकी कुमारी अवस्था भी क्रमश: बढ़ती ही जा रही थी।
पाठकगणों को यह बताने की आवश्यकता नहीं कि प्रणय-बन्धन में बांधना जिन देवता का काम है, वे यद्यपि इन दोनों के प्रति अब तक बराबर लापरवाही ही दिखा रहे थे; लेकिन प्रणय-बन्धन का बोझ जिस पर है उसने अब तक अपना समय व्यर्थ नहीं किया। वृध्द प्रजा-वती जिस समय झोंके ले रहे थे। नवयुवक कन्दर्प उस समय पूर्णतया सावधान था।
कामदेव का प्रभाव भिन्न-भिन्न प्रकार से पड़ा करता है। उनके प्रभाव में आकर राजीव अपने मन की दो बातें कहने के लिए पर्याप्त अवसर ढूंढ़ रहा था, पर महामाया उसे अवसर ही नहीं देती थी।
वास्तव में उसकी निस्तब्ध गम्भीर चितवन राजीव के व्यथित हृदय में एक प्रकार का भय पैदा कर देती थी।
आज सैकड़ों बार शपथ लेने के बाद राजीव उसे उस शिवालय के खंडहरों में ला सका। इसी से उसने सोचा कि जो कुछ उसे कहना है, आज सब-कुछ कह-सुन लेगा, उसके बाद या तो जिन्दगी भर सुख में रहेगा और नहीं तो आत्महत्या कर लेगा, जीवन के एक संकटमय दिन में राजीव ने केवल इतना ही कहा- चलो, विवाह कर लें और उसके उपरान्त पाठ भूले हुए छात्र के समान सकपकाकर चुप रह गया।
महामाया को मानो यह आशा ही न थी कि राजीव उसके सन्मुख ऐसा प्रस्ताव रख देगा। इससे देर तक वह चुप खड़ी रही।
दोपहरी की बहुत-सी अनिर्दिष्ट करुण ध्वनियां होती हैं, वे सबकी-सब इस सन्नाटे में फूट निकलीं। वायु से शिवालय का आधा हिलता हुआ टूटा द्वार बीच-बीच में बहुत ही क्षीण स्वर में धीरे-धीरे खुलने और बन्द होने लगा। कभी शिवालय के झरोखे में बैठा हुआ कपोत गुटुरगूं-गुटुरगूं करता तो कभी सूखे पल्लवों के ऊपर से सरासर करती हुई गिरगिट निकल जाती तो कभी सहसा मैदान की ओर से वायु का एक जोर का झोंका आता और उससे सब पेड़ों के पत्ते बार-बार आर्त्तनाद कर उठते; बीच-बीच में सहसा नदी का जल जागृत हो जाता और टूटे घाट की सीढ़ियों पर छल-छल, छपक-छपक चोट करने लगता। इन सब अकस्मात उदासी में डूबे हुए असल शब्दों के बीच बहुत दूरी पर, एक वृक्ष के नीचे किसी गडरिये की बांस की बांसुरी में से मैदानी राग निकल रहा है। राजीव को महामाया के मुख की ओर देखने की हिम्मत नहीं हुई। वह शिवालय की भीत के सहारे स्वप्न की-सी अवस्था में चुपचाप खड़ा-खड़ा सरिता के निर्मल जल की ओर निहारता रहा।
कुछ देर के पश्चात् मुंह फेरकर राजीव ने फिर एक बार भिक्षुक की तरह महामाया के मुख की ओर देखा। महामाया ने उसका आशय समझा, सिर हिलाते हुए कहा- 'नहीं, ऐसा नहीं हो सकता।
महामाया का सिर जैसे ही हिला, वैसे ही राजीव की आशा भी उसी क्षण पृथ्वी पर मूर्छित होकर गिर पड़ी। कारण, राजीव यह भलीभांति जानता था कि महामाया का सिर महामाया के निजी मतानुसार ही हिलता है और किसी की ताकत नहीं कि उसे अपने मत से विचलित कर सके? अपने कुल का शक्तियुक्त अभिमान-स्रोत महामाया के वंश में न जाने किस काल से बहता चला आ रहा है? भला आज वह राजीव जैसे अकुलीन ब्राह्मण के साथ विवाह करने के लिए कैसे तैयार हो सकती है? प्यार करना और बात है और विवाह के सूत्र में बंधना और बात। कुछ भी हो महामाया समझ गई कि उसके अपने ही विचार-व्यवहार के कारण राजीव का घमण्ड यहां तक चढ़ गया है और उसी क्षण वहां से चलने के लिए उद्यत हो गई।
राजीव ने समय एवं परिस्थिति से अवगत होते हुए कहा- कल ही यहां से चला जा रहा हूं।
महामाया ने पहले तो विचार किया कि अब उसे ऐसा भाव दिखाना चाहिए कि जहां चाहे रहे, इससे उसे क्या मतलब? पर दिखा न सकी। पग बढ़ाना चाहा, पर बढ़ा नहीं सकी-उसने शान्त मुद्रा में पूछा- क्यों?
राजीव ने कहा- हमारे साहब की यहां से सोनपुर के लिए बदली हो गई है, वे जा रहे हैं, सो मुझे भी साथ लेते जायेंगे।
महामाया का बहुत देर तक मुख न खुल सका। वह सोचती रही, दोनों के जीवन की गति दो ओर है, किसी भी इन्सान को सदैव के लिए नजरबन्द नहीं किया जा सकता। अत: उसने शान्त ओष्ठों को तनिक खोलकर कहा- अच्छा।
उसका यह 'अच्छा' कुछ-कुछ गहरी उसास-सी सुनाई दी और इतना ही कह के यह जाने के लिए तैयार हो गई। इतने में राजीव ने चौंककर कहा- भवानी बाबू।
महामाया ने देखा, भवानीचरण शिवालय की ओर आ रहे हैं। समझ गई कि उन्हें सब पता लग गया है। राजीव ने महामाया पर अकस्मात मुसीबत आते हुए देखकर, शिवालय की टूटी हुई दीवार फांदकर भागने का प्रयत्न किया; किन्तु महामाया ने हाथ पकड़कर उसे रोक लिया। भवानीचरण शिवालय के खंडहरों में पहुँचे और सिर्फ एक बार चुपचाप दोनों की ओर स्थिर दृष्टि से देखा।
महामाया ने राजीव की ओर देखते हुए अविचलित स्वर में कहा- राजीव मैं तुम्हारे घर ही आऊंगी। तुम मेरी राह देखना।
भवानीचरण चुपचाप शिवालय से बाहर आ गये। महामाया भी चुपचाप उनका अनुसरण करने लगी और राजीव चकित-सा होकर वहीं खड़ा रहा; मानो उसे फांसी का दण्ड सुनाया गया हो।

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